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सम्पत्तियों व दायित्वों का सत्यापन

संपत्तियों के सत्यापन का आशय संपत्तियों की विद्यमानता का पता लगाना है, संस्था के चिट्ठे में वे संपत्तियां स्पष्ट रूप से लिखी गई हैं तथा ये संपत्तियाँ संस्था के अधिकार में हैं। यह तभी संभव है जब अंकेक्षक संपत्तियों की पूर्ण जाँच कर ले। संपत्तियों के सत्यापन में पाँच बातें शामिल हैं –
1. खातों का चिट्टे से मिलान
2. चिट्ठे की तिथि को संपत्तियों के अस्तित्व का सत्यापन
3. इस बात की संतुष्टि प्राप्त करना कि संपत्तियाँ किसी प्रभार अथवा बंधक से मुक्त हैं
4. उनके मूल्य का सत्यापन करना
5. संपत्तियां व्यवसाय के लिए प्राप्त की गई थीं

 

स्थिति विवरण एवं लाभ-हानि खाते की शुद्धता पूर्ण रूप से संपत्तियों और दायित्वों के उचित मूल्यांकन पर निर्भर होती है। व्यापार की संपत्तियों और दायित्वों के मूल्यांकन के सही औचित्य की जाँच करना अंकेक्षक का प्रमुख कर्तव्य होता है। यद्यपि अंकेक्षक को एक निपुण मूल्य-निर्धारक नहीं माना जा सकता है और न ही वह मूल्यांकन की शुद्धता की गारण्टी कर सकता है। फिर भी उसे प्रयत्न करके यह देखना चाहिए कि संपत्तियों एवं दायित्वों को व्यापार की स्थिति विवरण में उनके वास्तविक मूल्य पर प्रदर्शित किया गया है एवं मूल्यांकन सही एवं सर्वमान्य सिद्धांतों के आधार पर किया है। चूँकि अंकेक्षक मूल्यांकन विशेषज्ञ नहीं होता इसलिए उसे व्यापार के उत्तरदायी अधिकारियों द्वारा प्रस्तुत मूल्यांकन अथवा विशेष योग्यता प्राप्त व्यक्तियों द्वारा किये गये मूल्यांकन पर विश्वास करने का अधिकार होता है। अंकेक्षक को संपत्तियों के मूल्यांकन के आधारभूत सिद्धांतों के औचित्य की जाँच अवश्य करनी चाहिए। लन्दन एण्ड जनरल बैंक एवं किंग्स्टन काॅटन मिल्स कंपनी के मुकदमों में दिए गए निर्णयों के अनुसार यह कहा जा सकता है कि यद्यपि संपत्तियों और दायित्वों का मूल्यांकन करना अंकेक्षक का कर्तव्य नहीं होता तो भी उसे अपनी बुद्धि एवं निपुणता का प्रयोग करके मूल्यांकन के आधारभूत सिद्धांतों के औचित्य की जांच अवश्य करनी चाहिए। व्यापार के अधिकारियों द्वारा मूल्यांकन की सत्यता का पता लगाने का प्रयास करना चाहिए। कंपनी अधिनियम 1956 के लागू हो जाने के बाद से अंकेक्षक के लिए यह देखना आवश्यक हो गया है कि स्थिति विवरण में वर्णित सभी संपत्तियों एवं दायित्वों का उचित एवं सही मूल्यांकन किया गया है। गुह्य संचति के बनाये जाने पर भी प्रतिबंध लग गया है। अंकेक्षक को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि कंपनी के व्यवहारों से संबंधित पक्षों में से किसी एक पक्ष को दूसरे पक्ष की कीमत पर कोई अनुचित लाभ न मिल जाए। इन सब उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अंकेक्षक को संपत्तियों एवं दायित्वों के मूल्यांकन की जाँच करते समय पूरी सतर्कता एवं सावधानी बर्तनी चाहिए। सही मूल्यांकन के लिए समस्त संबंधित तथ्यों एवं प्रमाणकों का निरीक्षण करना चाहिए।
मूल्यांकन की परिभाषा देते हुए लंकास्टर ने कहा है कि ”संपत्तियों के उपयोगिता काल में उनके प्रारंभिक मूल्यों को समान रूप से बाँटने को मूल्यांकन कहते हैं।“”The valuation of assets is therefore an attempt to ensure the equitable distribution of the original outlay over the period of the assets usefulness”.  प्रत्येक संपत्ति की एक निश्चित आयु होती है तथा उस अवधि में संपत्ति का प्रयोग किया जा सकता है किन्तु बाद में प्रयोगहीन हो जाती है। प्रारंभिक मूल्य से आशय संपत्ति प्राप्त करते समय किया गया भुगतान तथा स्थापित करने में संबंधित व्यय सम्मिलित होता है अतः संपत्ति के प्रारंभिक मूल्य में से अवशेष मूल्य ;ैबतंच टंसनमद्ध घटाकर शेष राशि को जीवनकाल में बाँट दिया जाता है जिससे संपत्ति के जीवनकाल में ही उसकी उपयोगिता का मूल्य प्राप्त हो जाये । उदाहरण के लिए, एक मशीन 5,000 रु में खरीदी और उसकी स्थापना पर 1,000 रु व्यय किये गये अतः संपत्ति का प्रारंभिक मूल्य 6,000 रु (5,000-1,000) होगा। यदि इस संपत्ति का जीवन काल 5 वर्ष है तो इस 6,000 रु को 5 वर्षों में बाँटा जायेगा। लेकिन इन 5 वर्षों में संपत्ति को दिखाने हेतु मूल्यांकन करवाना होगा जिससे कि व्यापार में विनियोजित पूँजी का सही प्रतिनिधित्व कर सकें। वैसे अलग-अलग संपत्तियों के मूल्यांकन करने की अलग-अलग विधियाँ हैं जैसे दृ चल-संपत्ति, स्थायी-संपत्ति, क्षयी-संपत्ति, अवश्य-संपत्ति तथा कृत्रिम संपत्तियों इत्यादि के लिए।